अग्रिम जमानत याचिका को इस आधार पर खारिज नहीं किया जा सकता कि चार्जशीट दायर की जा चुकी है या अदालत ने अपराध का संज्ञान लिया है: इलाहाबाद हाईकोर्ट

Jun 19, 2023
Source: https://hindi.livelaw.in/

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा कि एक अभियुक्त द्वारा दायर अग्रिम जमानत आवेदन को इस आधार पर कभी भी खारिज नहीं किया जा सकता कि इस मामले में आरोप पत्र दायर किया जा चुका है या संबंधित अदालत ने इसका संज्ञान लिया है। जस्टिस नलिन कुमार श्रीवास्तव की पीठ ने इस बात पर जोर देते हुए कि जब तक आवेदक को गिरफ्तार नहीं किया जाता है, तब तक किसी भी समय अग्रिम जमानत दी जा सकती है, इस प्रकार कहा, “…भले ही चार्जशीट दायर की जा चुकी हो और अभियुक्त के खिलाफ अदालत द्वारा संज्ञान लिया गया हो, जिसे जांच के दौरान गिरफ्तार होने से छूट मिली हुई है या किसी सक्षम अदालत के आदेश के माध्यम से उसे अग्रिम जमानत देकर उसे सुरक्षा दी गई हो या सीआरपीसी की धारा 41-ए के तहत जांच अधिकारी द्वारा नोटिस दिया गया हो, उसके द्वारा दी गई अग्रिम जमानत याचिका कानूनी रूप से सुनवाई योग्य है।" पीठ ने आईपीसी और दहेज निषेध अधिनियम की विभिन्न धाराओं के तहत दर्ज तीन आरोपियों (शिकायतकर्ता के पति, ससुर और सास) द्वारा दायर अग्रिम जमानत याचिका को स्वीकार करते हुए यह व्यवस्था दी। आवेदकों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल होने के बाद सत्र न्यायालय ने उन्हें इस आधार पर अग्रिम जमानत देने से इनकार कर दिया था कि उनके खिलाफ चार्जशीट दायर की जा चुकी है और संबंधित अदालत ने इसका संज्ञान लिया है। सत्र न्यायालय के इस आदेश के खिलाफ आवेदक हाईकोर्ट चले गए। आवेदकों द्वारा मुख्य रूप से यह तर्क दिया गया था कि वे सभी पेशे से पढ़े-लिखे व्यक्ति और डॉक्टर हैं और उनके द्वारा कभी भी दहेज की मांग नहीं की गई, जैसा कि आरोप लगाया गया है उन्होंने शिकायतकर्ता / विरोधी पक्ष संख्या 2 के साथ कभी भी कोई क्रूरता और उत्पीड़न नहीं किया। दूसरी ओर राज्य के वकील ने तर्क दिया कि जांच के दौरान आरोपी आवेदकों के खिलाफ पर्याप्त सबूत एकत्र किए गए हैं। यह आगे प्रस्तुत किया गया कि चार्जशीट दाखिल करने के बाद, जब उन्हें समन करने की प्रक्रिया जारी की गई तो वे अदालत के सामने पेश नहीं हुए और अदालत ने उनके खिलाफ गैर-जमानती वारंट जारी किया और बाद में सीआरपीसी की धारा 82 के तहत प्रक्रिया शुरू की, जिसका अर्थ है कि उन्हें अदालत द्वारा फरार अपराधी घोषित किया गया और इसलिए, प्रेम शंकर प्रसाद बनाम बिहार राज्य और अन्य एलएल 2021 एससी 579 के मामले में शीर्ष अदालत के फैसले के अनुसार उन्हें अग्रिम जमानत नहीं दी जा सकती। इसका जवाब देते हुए आवेदकों के वकील ने तर्क दिया कि उनकी ओर से वर्तमान अग्रिम जमानत याचिका सीआरपीसी की धारा 82 के तहत उद्घोषणा जारी करने से पहले दायर की गई थी और इसलिए मनीष यादव बनाम यूपी राज्य 2022 लाइवलॉ (एबी) 325 के मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के मद्देनजर अग्रिम जमानत याचिका सुनवाई योग्य है। दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद अदालत ने कहा कि वर्तमान आवेदक एचसी के समक्ष अग्रिम जमानत के लिए अपना आवेदन करते समय फरार घोषित अपराधी नहीं थे और इसलिए प्रेम शंकर प्रसाद (सुप्रा) के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा लगाई गई रोक कि एक फरार घोषित अपराधी की अग्रिम जमानत अर्जी पर विचार नहीं किया जा सकता, वर्तमान मामले में लागू नहीं होती है। अदालत ने आगे कहा कि उन्हें गिरफ्तारी से पहले ज़मानत देना उचित है, क्योंकि कथित अपराध में सात साल की अधिकतम अवधि के कारावास के दंड का प्रावधान है और आवेदक जांच के दौरान सहयोगी रहे हैं और रिकॉर्ड में कुछ अन्यथा दिखाने के लिए नहीं है। इस मामले पर अदालत ने सत्र न्यायालय के उस आदेश पर आश्चर्य व्यक्त किया, जिसमें आरोपी आवेदकों को चार्जशीट दाखिल करने और अदालत द्वारा उस पर संज्ञान लेते हुए एक आदेश पारित करने के आधार पर अग्रिम जमानत देने से इनकार कर दिया था। न्यायालय ने सुशीला अग्रवाल और अन्य बनाम राज्य (दिल्ली एनसीआर) और अन्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लेख करते हुए सत्र न्यायालयों को यह याद दिलाना उचित समझा कि सीआरपीसी की धारा 438 का वास्तविक दायरा क्या है और सत्र न्यायालय की शक्तियों का इस प्रकार अवलोकन किया, "सीआरपीसी की धारा 438 के तहत दी गई सुरक्षा हमेशा या सामान्य रूप से एक निश्चित अवधि तक सीमित नहीं होना चाहिए। इसे बिना किसी प्रतिबंध के समय पर अभियुक्त के पक्ष में सुनिश्चित करना चाहिए। हालांकि सीआरपीसी की धारा 437 (3) सहपठित धारा 438 (2) की सामान्य या मानक शर्तों को किसी विशेष मामले की विशिष्ट विशेषताओं के संबंध में लगाया जा सकता है ... अग्रिम जमानत की अवधि आम तौर पर उस समय और चरण में समाप्त नहीं होती है जब अभियुक्त को अदालत द्वारा सम्मन किया जाता है, या आरोप तय किए जाते हैं, बल्कि ट्रायल के अंत तक भी जारी रह सकती है। हालांकि, अगर कोई विशेष या अजीबोगरीब विशेषताएं हैं जो अदालत को अग्रिम जमानत की अवधि को सीमित करने के लिए आवश्यक बनाती हैं तो ऐसा करना अदालतों के लिए खुला है।” इसके अलावा, अदालत ने भारत चौधरी बनाम बिहार राज्य, (2003) 8 एससीसी 77 मामले में शीर्ष अदालत के फैसले का भी उल्लेख किया, जिसमें यह विशेष रूप कहा था कि “ सत्र न्यायालय, हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के पास सीआरपीसी की धारा 438 सीआरपीसी के तहत गैर-जमानती अपराधों में अग्रिम जमानत देने के लिए आवश्यक शक्ति निहित है। यहां तक ​​कि जब संज्ञान लिया जाता है या चार्जशीट दायर कर दी जाती है, बशर्ते कि मामले के तथ्यों के आधार पर अदालत को ऐसा करने की आवश्यकता हो” नतीजतन, अदालत ने टिप्पणी की कि आवेदकों की अग्रिम जमानत अर्जी को खारिज करते हुए सत्र न्यायालय द्वारा दी गई टिप्पणी गलत थी और तय कानूनी स्थिति को किसी भी तरह से तोड़-मरोड़ कर पेश करने की अनुमति नहीं दी जा सकती।

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